हिरण्यगर्भ सूक्त हिंदी भावार्थ सहित
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥
भावार्थ: हे देव! सूर्य आदि सभी तेजोमय पदार्थ आप में ही निहित है। आप सृष्टि के नियामक है। आप ही पृथ्वी, आकाश आदि लोकों के आधार है। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः॥
यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ २ ॥
भावार्थ: हे देव! आप आत्म ज्ञान,आत्मशक्ति और पुरुषार्थ चतुष्ट्य के प्रदाता है। समस्त विश्व आपकी उपासना करता है। आपका आश्रय परम सुख देने वाला है। आपसे विमुख होना मृत्यु का आमंत्रण है। आपकी कृपा अमृतत्व प्रदान करने वाला है। आप हमारी रक्षा करें।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव॥
यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ३ ॥
भावार्थ: हे देव! आप अपने महान सामर्थ्य से ही समस्त चराचर जगत् के एकमात्र अधिपति और पोषक हैं। आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः॥
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ४ ॥
भावार्थ: जिसके (महिमा) महत्त्व को ये हिमालय पर्वत, नदी के साथ समुद्र भी वर्णन करते हुए से लगते हैं, जिसकी ये सब चारों ओर की दिशाएँ भुजाओं जैसी-फैली हुयी हैं। हम आपकी अभ्यर्थना करते हैं।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः॥
यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५ ॥
भावार्थ : हे देव! आपने ही द्युलोक को प्रकाशित किया है। आपने ही पृथ्वी आदि लोकों को सुस्थिर किया है। आपने ही समस्त लोकों का निर्माण किया है। आप आनंद स्वरूप हैं। हम आपके इस विराट स्वरूप को प्रणाम करते हैं।
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने॥
यत्राधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ६ ॥
भावार्थ : आपने ही द्युलोक और पृथिवीलोक को आमने-सामने स्तम्भित (स्थिर) कर रखा है जिसके आधार पर सूर्य उदय (प्रकाशित) होता है ऐसे ईश्वर की हम अभ्यर्थना करते हैं।
आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम्॥
ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥
भावार्थ : जब सारा संसार जल में निमग्न था। उस समय सृष्टि के आरम्भ में परमाणु प्रवाह आग्नेय तत्त्व को अपने अन्दर धारण करता हुआ प्रकट होता है, तब समस्त देवों का प्राणभूत एक देव परमात्मा वर्त्तमान था ऐसे हिरण्यगर्भ रूप की हम अभ्यर्थना करते हैं।
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्॥
यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८ ॥
भावार्थ : हे देव! महा जलराशि में आपने अपने महत्त्व से सृष्टियज्ञ को-प्रकट करने के हेतु, बल वेग धारण करते हुए अप्तत्त्व-परमाणुओं को जो सब ओर से देखता है जानता है, जो सब देवों के ऊपर अधिष्ठाता होकर वर्त्तमान है, उस देव की हम अभ्यर्थना करते हैं।
मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान॥
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ९ ॥
भावार्थ : जिस परमात्मा ने पृथिवीलोक, द्युलोक, चन्द्रताराओं से भरा मन भानेवाला अन्तरिक्ष उत्पन्न किया है, हम उनकी अभ्यर्थना करते हैं।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव॥
यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥ १० ॥
भावार्थ: हे देव! आप भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालों में व्याप्त हैं। समस्त जड़-चेतन में आप ही व्याप्त हैं। आप सर्वोपरि हैं। आप ही सकल ऐश्वर्य के स्वामी हैं। हम अपनी सुख-समृद्धि के लिए आपकी उपासना करते हैं। हमारी कामना पूर्ण हो।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
इति: हिरण्यगर्भः सूक्तम्॥