शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे॥
भावार्थ :
जिस प्रकार कुत्ते की पुंछ से न तो उसके गुप्त अंग छिपते हैं और न वह मच्छरों के काटने से रोक सकती है, इसी प्रकार विद्या से रहित जीवन भी व्यर्थ है । क्योंकि विद्याविहीन मनुष्य मूर्ख होने के कारण न अपनी रक्षा कर सकते है न अपना भरण- पोषण ।
वाचा च मनसः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचमेतचछौचं परमार्थिनाम्॥
भावार्थ :
मन, वाणी को पवित्र रखना, इंद्रियों को निग्रह, सभी प्राणियों पर दया करना और दूसरों का उपकार करना सबसे बड़ी शुद्धता है ।
अधमा धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः। उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्॥
भावार्थ :
अधम धन की इच्छा करतें हैं, मध्यम धन और मान चाहते हैं, किन्तु उत्तम केवल मान चाहते हैं महापुरुषों का धन मान ही है ।
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे तद् बलप्रदम्। भोजने चामृतं वारि भोजनान्तें विषप्रदम्॥
भावार्थ :
भोजन न पचने पर जल औषधि के समान होता है । भोजन करते समय जल अमृत है तथा भोजन के बाद विष का काम करता है ।
काष्ठपाषाण धातुनां कृत्वा भावेन सेवनम्। श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः॥
भावार्थ :
काष्ट, पाषण या धातु की मूर्तियाें की भी भावना और श्रद्धा से उपासना करने पर भगवान की कृपा से सिद्धि मिल जाती है ।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्॥
भावार्थ :
ईश्वर न काष्ट में हैं, न मिट्टी में, न मूर्ति में । वह केवल भावना में रहता है । अतः भावना ही मुख्य है ।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्। न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥
भावार्थ :
शान्ति के समान तपस्या नहीं है, सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर कोई व्याधि नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं है ।
क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम्॥
भावार्थ :
क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु है और सन्तोष नन्दन वन है ।
गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्। सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्॥
भावार्थ :
गुण रूप कि शोभा बढ़ाते हैं, शील – स्वभाव कुल की शोभा बढ़ाता है, सिद्धि विद्या की शोभा बढ़ाती है और भोग करना धन की शोभा बढ़ाता है ।
निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्। असिद्धस्य हता विद्या अभोगस्य हतं धनम्॥
भावार्थ :
गुणहीन का रूप, दुराचारी का कुल तथा अयोग्य व्यक्ति की विद्या नष्ट हो जाती है । धन का भोग न करने से धन भी नष्ट हो जाता है ।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीने च देहिनाम्। दुष्कुलं चापि विदुषी देवैरपि हि पूज्यते॥
भावार्थ :
विद्याहीन होने पर विशाल कुल का क्या करना? विद्वान नीच कुल का भी हो, तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है ।
विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्। विद्वया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते॥
भावार्थ :
विद्वान की लोक में प्रशंसा होती है, विद्वान को सर्वत्र गौरब मिलता है, विद्या से सब कुछ प्राप्त होता है और विद्या की सर्वत्र पूजा होती है ।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः। ते एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति परस्पर एक – दूसरे की बातों को अन्य लोगों को बता देते हैं वे बांबी के अन्दर के सांप के समान नष्ट हो जाते हैं ।
सर्वौषधीनामममृतं प्रधानं सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्। सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्॥
भावार्थ :
सभी औषधियों में अमृत (गिलोय) प्रधान है । सभी सुखों में भोजन प्रधान है । सभी इंद्रियों में आँखे मुख्य हैं । सभी अंगों में सर महत्वपूर्ण है ।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः। भाण्डारी च प्रतिहारी सप्तसुप्तान् प्रबोधयेत॥
भावार्थ :
विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूख से दुःखी, भयभीत, भण्डारी, द्वारपाल – इन सातों को सोते हुए से जगा देना चाहिए ।
अहिं नृपं च शार्दूलं वराटं बालकं तथा। परश्वानं च मूर्खं च सप्तसुप्तान् बोधयेत्॥
भावार्थ :
सांप, राजा, शेर, बर्र, बच्चा, दूसरे का कुत्ता तथा मूर्ख इनको सोए से नहीं जगाना चाहिए ।
दरिद्रता धीरयता विराजते कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते। कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते॥
भावार्थ :
धीरज से निर्धनता भी सुन्दर लगती है, साफ रहने पर मामूली वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, गर्म किये जाने पर बासी भोजन भी सुन्दर जान परता है और शील – स्वभाव से कुरूपता भी सुन्दर लगती है ।
धनहीनो न च हीनश्च धनिक स सुनिश्चयः। विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु॥
भावार्थ :
धनहीन व्यक्ति हीन नहीं कहा जाता । उसे धनी ही समझना चाहिए । जो विद्यारत्न से है, वस्तुतः वह सभी वस्तुओं में हीन है ।
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत्। शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्॥
भावार्थ :
आँख से अच्छी तरह देख कर पांव रखना चाहिए जल वस्त्र से छानकर पीना चाहिए । शाश्त्रों के अनुसार ही बात कहनी चाहिए तथा जिस काम को करने का मन आज्ञा दे, वही करना चाहिए ।
सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत्सुखम्। सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्॥
भावार्थ :
यदि सुखों की इच्छा है, तो विद्या त्याग दो और यदि विद्या की इच्छा है, तो सुखों का त्याग कर दो । सुख चाहनेवाले को विद्या कहां तथा विद्या चाहनेवाले को सुख कहां ।
कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः। मद्यपा किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः॥
भावार्थ :
कवि क्या नहीं देखते ? स्त्रियां क्या नहीं करतीं ? शराबी क्या नहीं बकते ? तथा कौए क्या नहीं खाते ?
रङ्कं करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च। धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः॥
भावार्थ :
भाग्य रंक को राजा और राजा को रंक बना देता है । धनी को निर्धन तथा निर्धन को धनी बना देता है ।
येषां न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं च गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति॥
भावार्थ :
जिनमें विद्या, तपस्या, दान देना, शील, गुण तथा धर्म में से कुछ भी नहीं है, वे मनुष्य पृथ्वी पर भार हैं । वे मनुष्य के रूप में पशु हैं, जो मनुष्यों के बीच में घूमते रहते हैं ।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयः पत्रफलाम्बु सेवनम्। तृणेशु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्॥
भावार्थ :
बाघ, हाथी और सिंह जैसे भयंकर जीवों से घिर हुए वन में रह ले, वृक्ष पर घर बनाकर, फल – पत्ते खाकर और पानी पीकर निर्वाह कर ले, धरती पर घास – फूस बिछाकर सो ले और फटे – पुराने टुकड़े – टुकड़े हुए वृक्षों की छल को ओढ़कर शरीर को धक ले, परन्तु धनहीन होने की दशा में अपने संबन्धियों के साथ कभी न रहे, क्योंकि इससे उसे अपमान और उपेक्षा का जो कड़वा घूंट पीना पड़ता है, वह सर्वथा असह्य होता है ।
माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः। बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
भावार्थ :
जिस मनुष्य की माँ लक्ष्मी के समान है, पिता विष्णु के समान है और भाइ – बन्धु विष्णु के भक्त है, उसके लिए अपना घर ही तीनों लोकों के समान है ।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्। वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः॥
भावार्थ :
जिस व्यक्ति के पास बुद्धि होती है, बल भी भी उसी के पास होता है । बुद्धिहीन का तो बल भी निरर्थक है, क्योंकि बुद्धि के बल पर ही उसका प्रयोग कर सकता है अन्यथा नहीं । बुद्धि के बल पर ही एक बुद्धिमान खरगोश ने अहंकारी सिंह को वन के कुएं में गिराकर मार डाला था ।
दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता। अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः॥
भावार्थ :
दान देने की आदत, प्रिय बोलना, धीरज तथा उचित ज्ञान – ये चार व्यक्ति के सहज गुण हैं ; जो अभ्यास से नहीं आते ।
अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि। न शुद्धयतियथाभाण्डं सुरया दाहितं च तत्॥
भावार्थ :
जैसे सुरापात्र अग्नि में जलाने पर भी शुद्ध नहीं होता । इसी प्रकार जिसके मन में मैल हो, वह दुष्ट चाहे सैकड़ों तीर्थ – स्नान का ले, कभी शुद्ध नहीं होता ।
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वाद शृङ्गारकौतुकम्। अतिनिद्राऽतिसेवा च विद्यार्थी ह्याष्ट वर्जयेत्॥
भावार्थ :
काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, शृंगार, कौतुक, अधिक सोना, अधिक सेवा करना, इन आठ कामों को विद्यार्थी छोड़ दे ।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा। शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः॥
भावार्थ :
सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है, भाई धर्म है, दया मित्र है, शान्ति पत्नी है तथा क्षमा पुत्र है, ये छः ही मेरी सगे- सम्बन्धी हैं ।
मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥
भावार्थ :
अन्य व्यक्तियों की स्त्रियों को माता के समान समझे, दूसरें के धन पर नज़र न रखे, उसे पराया समझे और सभी लोगों को अपनी तरह ही समझे ।
जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः। स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥
भावार्थ :
एक-एक बूंद डालने से क्रमशः घड़ा भर जाता है । इसी तरह विद्या, धर्म और धन का भी संचय करना चाहिए ।
गतं शोको न कर्तव्यं भविष्यं नैव चिन्तयेत्। वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः॥
भावार्थ :
बीती बात पर दुःख नहीं करना चाहिए । भविष्य के विषय में भी नहीं सोचना चाहिए । बुद्धिमान लोग वर्तमान समय के अनुसार ही चलते हैै ।
स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिताः। ज्ञातयः स्नानपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः॥
भावार्थ :
देवता, सज्जन और पिता स्वभाव से, भाई- बन्धु स्नान- पान से तथा विद्वान वाणी से प्रसन्न होते हैं ।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥
भावार्थ :
जिसे किसी के प्रति प्रेम होता है उसे उसी से भय भी होता है, प्रीति दुःखो का आधार है । स्नेह ही सारे दुःखो का मूल है, अतः स्नेह- बन्धनों को तोड़कर सुखपूर्वक रहना चाहिए ।
अनागत विधाता च प्रत्युत्पन्नगतिस्तथा। द्वावातौ सुखमेवेते यद्भविष्यो विनश्यति॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति भविष्य में आनेवाली विपत्ति के प्रति जागरूक रहता है और जिसकी बुद्धि तेज़ होती है, ऐसा ही व्यक्ति सुखी रहता है । इसके विपरीत भाग्य के भरोसे बैठा रहनेवाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है ।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्। मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः॥
भावार्थ :
जो मनुष्य अपने जीवन में कोई भी अच्छा काम नहीं करता, ऐसा धर्महीन मनुष्य ज़िंदा रहते हुए भी मरे के समान है । जो मनुष्य अपने जीवन में लोगों की भलाई करता है और धर्म संचय कर के मर जाता है, वे मृत्यु के बाद भी यश से लम्बे समय तक जीवित रहता है ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्वते। अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्॥
भावार्थ :
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में से जिस व्यक्ति को एक भी नहीं पाता, उसका जीवन बकरी के गले के स्थन के समान व्यर्थ है ।
दह्यमानां सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना। अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते॥
भावार्थ :
दुष्ट व्यक्ति दूसरे की उन्नति को देखकर जलता है वह स्वयं उन्नति नहीं कर सकता । इसलिए वह निन्दा करने लगता है
बन्धन्य विषयासङ्गः मुक्त्यै निर्विषयं मनः। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः॥
भावार्थ :
बुराइयों में मन को लगाना ही बन्धन है और इनसे मन को हटा लेना ही मोक्ष का मार्ग दिखता है । इस प्रकार यह मन ही बन्धन या मोक्ष देनेवाला है
देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः॥
भावार्थ :
परमात्मा का ज्ञान हो जाने पर देह का अभिमान गल जाता है । तब मन जहां भी जाता है, उसे वहीं समाधि लग जाती है ।
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्। दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत्॥
भावार्थ :
मन के चाहे सारे सुख किसे मिले हैं । क्यूंकि सब कुछ भाग्य के अधीन है । अतः सन्तोष करना चाहिए ।
यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्। तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥
भावार्थ :
जैसे हजारों गायों में भी बछरा अपनी ही मां के पास जाता है, उसी तरह किया हुआ कर्म कर्ता के पीछे-पीछे जाता है ।
अनवस्थितकायस्य न जने न वने सुखम्। जनो दहति संसर्गाद् वनं सगविवर्जनात॥
भावार्थ :
जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है और न वन में ही । लोगो के बीच में रहने पर उनका साथ जलता है तथा वन में अकेलापन जलाता है ।
यथा खनित्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति। तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रुषुरधिगच्छति॥
भावार्थ :
जैसे फावड़े से खोदकर भूमि से जल निकला जाता है, इसी प्रकार सेवा करनेवाला विद्यार्थी गुरु से विद्या प्राप्त करता है ।
पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥
भावार्थ :
अनाज, पानी और सबके साथ मधुर बोलना – ये तीन चीजें ही पृथ्वी के सच्चे रत्न हैं । हीरे जवाहरात आदि पत्थर के टुकड़े ही तो हैं । इन्हें रत्न कहना केवल मूर्खता है ।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । दारिद्रयरोग दुःखानि बन्धनव्यसनानि च॥
भावार्थ :
निर्धनता, रोग, दुःख, बन्धन, और बुरी आदतें सब-कुछ मनुष्य के कर्मो के ही फल होते हैं । जो जैसा बोता है, उसे वैसा ही फल भी मिलता है, इसलिए सदा अच्छे कर्म करने चाहिए ।
बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥
भावार्थ :
शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छपर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।
त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥
भावार्थ :
दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥
भावार्थ :
जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।
उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥
भावार्थ :
गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?
दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥
भावार्थ :
मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः । यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति हृदय में रहता है, वह दूर होने पर भी दूर नहीं है । जो हृदय में नहीं रहता वह समीप रहने पर भी दूर है ।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः॥
भावार्थ :
किसी सभा में कब क्या बोलना चाहिए, किससे प्रेम करना चाहिए तथा कहां पर कितना क्रोध करना चाहिए जो इन सब बातों को जानता है, उसे पण्डित अर्थात ज्ञानी व्यक्ति कहा जाता है ।
तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलश्चैव वासराः । यावत्सर्वं जनानन्ददायिनी वाङ्न प्रवर्तते॥
भावार्थ :
कोयल तब तक मौन रहकर दिनों को बिताती है, जब तक कि उसकी मधुर वाणी नहीं फूट पड़ती । यह वाणी सभी को आनन्द देती है । अतः जब भी बोले, मधुर बोलो । कड़वा बोलने से चुप रहना ही बेहतर है ।
यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटा भसमलेपनैः॥
भावार्थ :
जिस मनुष्य का हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से द्रवीभूत हो जाता है, उसे ज्ञान, मोक्ष, जता, भष्म – लेपन आदि से क्या लेना ।
एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद् दत्त्वा चाऽनृणी भवेत् ॥
भावार्थ :
जो गुरु एक अक्षर का भी ज्ञान करता है, उसके ऋण से मुक्त होने के लिए, उसे देने योग्य पृथ्वी में कोई पदार्थ नहीं है ।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति॥
भावार्थ :
लक्ष्मी वैसे ही चंचल होती है परन्तु चोरी, जुआ, अन्याय और धोखा देकर कमाया हुआ धन भी स्थिर नहीं रहता, वह बहुत शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । अतः व्यक्ति को कभी अन्याय से धन के अर्जन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ।
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या अल्पं च कालो बहुविघ्नता च । आसारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥
भावार्थ :
शाश्त्र अनेक हैं, विद्याएं अनेक हैं, किन्तु मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, उसमें भी अनेक विघ्न हैं । इसलिए जैसे हंस मिले हुए दूध और पानी में से दूध पि लेता है और पानी को छोड़ देता है उसी तरह काम की बातें ग्रहण कर लो तथा बाकी छोड़ दो
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥
भावार्थ :
सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है ।
गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थितैः । प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायते ॥
भावार्थ :
गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है, न कि किसी ऊंचे स्थान पर बैठ जाने से । राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौआ गरुड़ नहीं बनता ।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः । तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
भावार्थ :
मधुर वचन बोलना, दान के समान है । इससे सभी मनुष्यों को आनन्द मिलता है । अतः मधुर ही बोलना चाहिए । बोलने में कैसी गरीबी !
पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु च यद्धनम् । उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ॥
भावार्थ :
जो विद्या पुस्तक में ही है, और जो धन दूसरे को हाथ में चला गया है, ये दोनों चीजें समय पर काम नहीं आतीं ।
कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् । तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्॥
भावार्थ :
उपकारी के साथ उपकार, हिंसक के साथ प्रतिहिंसा करनी चाहिए तथा दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए । इसमें कोई दोष नहीं है ।
यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥
भावार्थ :
कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो, और वह पहुचं से बहार क्यों न हो, कठिन तपस्या अर्थात परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है । परिश्रम सबसे शक्तिशाली वस्तु है ।
नान्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा । न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम् ॥
भावार्थ :
अन्न और जल के दान के समान कोई नहीं है । द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है । गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है । माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है ।
दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन । मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥
भावार्थ :
दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से ही शुद्ध होता है न कि चन्दन का लेप लगाने से, तृप्ति मान से होता है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि श्रृंगार से